रफीक खान
भारत की सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि हिंदू विवाह एक पवित्र संस्कार है। वह "सॉन्ग-डांस", "वाइनिंग-डायनिंग" का आयोजन नहीं है हिंदू विवाह के महत्व और पवित्रता को समझने की आवश्यकता है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी शादी से संबंधित एक मामले की सुनवाई के उपरांत पारित किए गए फैसले के दौरान की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि अपेक्षित सेरेमनी नहीं की गई है तो हिंदू विवाह अमान्य है और पंजीकरण इस तरह के विवाह को वैध नहीं बताता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदू विवाह की कानूनी आवश्यकताओं और पवित्रता को विस्तार के साथ रेखांकित किया है, जो निश्चित तौर पर भविष्य में बड़ी नजीर साबित होगा।
नेशनल मीडिया रिपोर्ट्स में फैसले का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह को वैध होने के लिए, इसे सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर फेरे के सात चरण) जैसे उचित संस्कार और समारोहों के साथ किया जाना चाहिए और विवादों के मामले में इन समारोह का प्रमाण भी मिलता है। जस्टिस बी. नागरत्ना ने अपने फैसले में कहा, हिंदू विवाह एक संस्कार है, जिसे भारतीय समाज में एक महान मूल्य की संस्था के रूप में दर्जा दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि युवा पुरुष और महिलाए विवाह की संस्था में प्रवेश करने से पहले इसके बारे में गहराई से सोचें और भारतीय समाज में उक्त संस्था कितनी पवित्र है, इस पर विचार करें, तभी भारत की है महत्वपूर्ण और सनातनी संस्कृति फलेगी फूलेगी। विवाह "गीत और नृत्य' और 'शराब पीने और खाने' का आयोजन नहीं है या अनुचित दबाव द्वारा दहेज और उपहारों की मांग करने और आदान-प्रदान करने का माध्यम या मौका नहीं है। जिसके बाद किसी मामले में आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत हो सकती है. विवाह कोई व्यावसायिक लेन-देन नहीं है, यह भारतीय समाज का ऐसा महत्वपूर्ण आयोजन है जो एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध स्थापित करने के लिए मनाया जाता है। जो भविष्य में एक विकसित होते परिवार के लिए पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते हैं। विवाह की इन वास्तविकताओं को अगर युवा वर्ग गंभीरता से पालन करेगा और ध्यान रखेगा तो समाज का एक मजबूत स्वरूप सामने दिखाई देगा।